- डॉ. माया वालेचा और विनीत तिवारी
एक मजबूत राष्ट्रीय स्वास्थ्य व्यवस्था की आवश्यकता है, जिसमें देश के सभी संसाधनों को लोगों की उत्तम सेवा के लिए उपयोग में लाया जा सके। बेशक सरकार को अधिक खर्च करना होगा और इसके लिए अमीर वर्ग पर ज्यादा कर/टैक्स लगाना होगा। सालों से उन्हें सभी तरह के कर-लाभ, रियायतें, कर-मुक्त अवधि, कर-कटौती, बेलआउट और अन्य कई लाभ दिए गए हैं। 'सुपर रिच टैक्स' एक ऐसा उपाय है।
निजी क्षेत्र के अस्पताल और अन्य स्वास्थ्य सेवाएं सामान्यत: गरीब तबके की पहुंच से इतनी बाहर रहती हैं कि उनके होने, न होने से गरीबों को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। ये सेवाएं आमतौर पर समाज के धनी और उच्च मध्यमवर्गीय हिस्से के काम आती हैं जो स्वास्थ्य पर इतना अधिक ख़र्च कर सकते हैं। देश में आम लोग सरकारी अस्पतालों में अपना इलाज करवाकर ठीक होते रहे हैं। अच्छा हो या बुरा, इस भेदभावपूर्ण स्वास्थ्य व्यवस्था को मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले मॉडल की तरह देश में स्वीकार कर लिया गया था। कुल जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा या तो सरकारी और सस्ती स्वास्थ्य सेवाएं हासिल कर लेता था या फिर कुछ भी हासिल नहीं कर पाता था। निजी क्षेत्र के बड़े महंगे अस्पताल उनकी पहुंच से बाहर रहते थे।
उदारीकरण की शुरुआत के बाद से सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र को सिकोड़ा जाने लगा और निजी क्षेत्र को मुनाफ़ा कमाने के अधिक अवसर मुहैया करवाये जाने लगे। देश में 2014 के चुनावों में विजय हासिल करने के बाद भाजपा सरकार ने कांग्रेस सरकार द्वारा शुरू की गई निजीकरण की नीतियों को बहुत तेज़ रफ़्तार के साथ आगे बढ़ाया। जितने सार्वजनिक उपक्रम पिछले 65-70 वर्षों में खड़े किये गए थे, उन्हें धड़ाधड़ निजी हाथों में सौंपा जाने लगा। कोविड आने पर महसूस किया गया कि सार्वजनिक क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवाएं कितनी मददगार हुईं, लेकिन मुनाफ़ाखोर पूंजीवादी व्यवस्था ने उसे भी आपदा में अवसर की तरह देखा और निजी क्षेत्र के अस्पतालों और दवा कंपनियों को अकल्पनीय फ़ायदा पहुंचाया।
फिर भी आमतौर पर जो अनुभव कोविड काल का रहा, उसमें देखा गया कि न केवल ग़रीब लोगों के लिए निजी स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं थीं, बल्कि जो पैसे खर्च करने में सक्षम थे, उन्हें भी निजी स्वास्थ्य सेवाओं से वो सेवाएं नहीं मिल सकीं जिनके लिए वो बरसों-बरस भारी रकम लुटाते रहे हैं। ज़्यादातर वही सरकारी अस्पताल, सरकारी डॉक्टर और स्टाफ काम आया जिसे निजीकरण के युग में हाशिये पर धकेला जा रहा था, जिनकी ज़मीनें बेची जा रही थीं, जिनके स्टाफ को ठेके पर रखा जा रहा था और जहां से दवाइयां मुफ़्त देना बंद किया जा रहा था।
1990 के दशक के बाद से सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के संजाल को धीरे-धीरे नाकारा करना शुरू कर दिया गया था। अस्पतालों से दवाएं ग़ायब हो गईं थीं, जांचों के लिए मरीजों को निजी 'पैथोलॉजी लेबोरेटरी' भेजा जाने लगा था। एक्स-रे, ईसीजी मशीनें या अन्य ज़रूरी उपकरण भी सरकारी अस्पतालों में ठीक-ठाक हालत में नहीं मिलते थे। सरकारी अस्पतालों के बजट में सरकार ने कटौती कर दी थी। कुल मिलाकर, धीरे-धीरे सरकारी अस्पतालों से मरीजों का विश्वास कमज़ोर कर दिया गया था और क़रीब-क़रीब 80 फीसदी मरीज मजबूरी में निजी स्वास्थ्य सेवाओं की तरफ मुड़ गए थे।
कोविड की दूसरी लहर में सरकार ने निजी अस्पतालों को स्वास्थ्य सेवाएं देने के लिए बाध्य किया। बाध्यता के चलते निजी अस्पतालों ने अपने दरवाज़े तो खोल दिए, लेकिन सब जानते हैं कि कोविड के मरीज का निजी अस्पतालों में इलाज का पैकेज लाखों रुपये रोज़ का था। पंजाब, दिल्ली और केरल ही ऐसे राज्य थे जहां सरकार ने बेतहाशा महंगे कर दिए गए इलाज के मामले में कुछ हस्तक्षेप किया और मरीजों को राहत दिलवाई। दवाओं की जमाख़ोरी खुलेआम हुई। राजनेताओं ने जरूरत न होने पर भी अपने क्षेत्र के मतदाताओं को उपकृत करने के लिए जिस दवा का नाम चला, वो थोक में ख़रीदकर रख ली। 'रेमडेसिवीर' के नाम पर सादे पानी के इंजेक्शन भी ज़रूरतमंदों को एक-एक लाख रुपये में बेच दिए गए।
इन सभी कारणों से सरकारी अस्पतालों पर काफ़ी अतिरिक्त भार आ गया, जबकि उन्हें 1991 के बाद से धीरे-धीरे कमज़ोर करने की प्रक्रिया पहले ही जारी थी। जिन मरीजों को टेस्ट में कोरोना पॉजिटिव आया, लेकिन कोई और बीमारी का लक्षण उन्हें नहीं था, उन्हें भी सरकारी अस्पतालों में भर्ती कर दिया गया। नतीजा ये हुआ कि जो छोटी-मोटी बीमारी के भी मरीज थे, जिनका सामान्य स्थितियों में घर पर ही इलाज हो जाता था, लेकिन कोरोना के डर ने उन्हें अस्पतालों की ओर दौड़ने पर मजबूर कर दिया था। बाद में, ऑक्सीजन सिलिंडरों की जो त्राहि-त्राहि मची, निजी अस्पतालों ने ना केवल मुनाफ़ा कमाया, बल्कि कुछ अस्पतालों ने तो ऑक्सीजन आपूर्ति बंद करके मरीजों की जान से भी खिलवाड़ किया। इसी तरह वैक्सीन बनाने के मामले में भी निजी कंपनियों के हित आगे रखे गए।
कोरोना ने निजी स्वास्थ्य व्यवस्था के असली कुरूप चेहरे को देश के आम लोगों के सामने उघाड़कर रख दिया था, लेकिन सरकार और प्रशासन ने आम लोगों के असंतोष और ग़ुस्से को सोशल मीडिया के ज़रिये विभाजित और विमुख कर दिया। यह बात लोगों के सामने बार-बार रखने की ज़रूरत है कि सबसे भीषण स्वास्थ्य संकट के दौरान सबसे ज़्यादा काम में आने वाली व्यवस्था वही सार्वजनिक स्वास्थ्य की सरकारी व्यवस्था थी जिसे आजादी के बाद स्थापित किया गया था।
इन्हीं सब वजहों से स्वास्थ्य का मुद्दा पहली बार ज़ोरदार राजनीतिक मुद्दा भी बना, हालांकि मीडिया और राजनीति के गठजोड़ ने इसे ज़्यादा देर तक बना नहीं रहने दिया। फिर भी कहीं-न-कहीं जो सरकारी उपक्रमों को कामचोर और निजी उपक्रमों को अधिक योग्य और सक्षम बताते नहीं थकते थे, उन्हें भी लगा कि अगर निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र को साथ-साथ समानांतर चलाया गया तो निजी क्षेत्र, येन-केन प्रकारेण मुनाफ़े को बढ़ाने की प्रवृत्ति के कारण, सार्वजनिक क्षेत्र को हाशिये पर धकेलता जाता है। अगर स्वास्थ्य का क्षेत्र ही मुनाफ़े पर आधारित हो जाएगा तो हमें एक बीमार और अस्वस्थ्य आबादी वाला देश बनने से कौन रोक पाएगा?
हमें एक मजबूत राष्ट्रीय स्वास्थ्य व्यवस्था की आवश्यकता है, जिसमें देश के सभी संसाधनों को लोगों की उत्तम सेवा के लिए उपयोग में लाया जा सके। बेशक सरकार को अधिक खर्च करना होगा और इसके लिए अमीर वर्ग पर ज्यादा कर/टैक्स लगाना होगा। सालों से उन्हें सभी तरह के कर-लाभ, रियायतें, कर-मुक्त अवधि, कर-कटौती, बेलआउट और अन्य कई लाभ दिए गए हैं। 'सुपर रिच टैक्स' एक ऐसा उपाय है, 'वेल्थ टैक्स' और 'इनहैरिटैंस टैक्स' (विरासत-कर) भी लगा सकते हैं। वैसे भी टैक्स का स्लैब जो जितना ज़्यादा अमीर है, उसके लिए उतना ही कम है। सरकार जो भी योजनाएं लाती है, उसमें गरीबों का पैसा अंत में अमीरों की दवाई में और अमीर डॉक्टरों और अमीर हॉस्पिटलों की जेब में जाता है।